BuzzFlix Politics द्वारा
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कभी भारत की राजनीति में एक कप चाय सिर्फ एक पेय नहीं था – वो एक आंदोलन था, एक उम्मीद की कहानी थी। एक चायवाला आया और कहा अच्छे दिन लाएंगे। हर नुक्कड़ पर चाय पे चर्चा होती थी और लोग सोचते थे, “अब कुछ बदलने वाला है।”
लेकिन आज, वही सरकार जिसे चाय ने सत्ता में पहुँचाया, अब गाय, धर्म और जाति पर अटक गई है। अभिनेता से नेता बने डॉ. अमोल कोल्हे ने हाल ही में कहा – “चाय पर शुरू हुई सरकार, गाय पर आकर अटक गई” – और अब सवाल ये है: क्या ये सिर्फ गाय तक ही सीमित है?
❌ अब असली मुद्दों से ध्यान हटाने का नया खेल चल रहा है।
🚩 चाय – उम्मीद की शुरुआत
2014 में चाय एक प्रतीक बन गई थी – एक सामान्य इंसान का असाधारण बनने का सपना। लेकिन वक्त के साथ नारे तो रह गए, काम कहीं खो गया।
🐄 गाय – बहस की बेड़ियां
जब बेरोजगारी, महंगाई और किसान आत्महत्या जैसे सवाल सामने आते हैं, तो तुरंत बहस मोड़ दी जाती है – या तो गाय पर, या फिर बीफ पर।
🕌 हिन्दू-मुसलमान – बँटवारे की राजनीति
जब आर्थिक मोर्चे पर सरकार असफल होती है, तो धार्मिक भावनाओं को भड़काकर वोट बटोरे जाते हैं। मुसलमान खतरे में हैं, लव जिहाद हो रहा है, देशद्रोही कौन है – ये सवाल TV डिबेट्स की TRP बढ़ा देते हैं, पर देश नहीं।
👥 जातिभेद – समाज को तोड़ने का नया टूल
आरक्षण को लेकर विवाद, दलित उत्पीड़न की खबरें, और पिछड़ी जातियों के खिलाफ भेदभाव – ये सब चुनावी मुद्दे नहीं, बल्कि सत्ता में बने रहने की रणनीति बन चुके हैं। सवाल ये नहीं है कि जाति कब खत्म होगी, सवाल ये है कि क्या कोई इसे खत्म करना चाहता भी है?
🎭 विकास नहीं, नाटक ज़्यादा
जब जवाब देने को कुछ ना हो, तो भावनाओं की राजनीति कर लो। कोल्हे की बात सीधी दिल पर लगती है। जनता अब भी पूछ रही है – “रोजगार कहाँ है? महंगाई क्यों बढ़ रही है? किसान आत्महत्या क्यों कर रहे हैं?”
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📢 अंतिम बात
जिस सरकार ने चाय से उम्मीदें जगाईं, वही अब गाय, धर्म और जाति के नाम पर लोगों को बाँट रही है। जनता को अब न नारे चाहिए, न नफ़रत – अब चाहिए जवाब, विकास और समानता। चाय की चुस्की बहुत हो गई, अब हक की बात होनी चाहिए।